भगवान शंकर के पूर्ण रूप काल भैरव !
एक बार सुमेरु पर्वत पर बैठे हुए ब्रम्हाजी के पास जाकर देवताओं ने उनसे अविनाशी तत्व बताने का अनुरोध किया | शिवजी की माया से मोहित ब्रह्माजी उस तत्व को न जानते हुए भी ब्रह्माजी इस प्रकार बोलने लगे – मैं ही इस संसार को उत्पन्न करने वाला स्वयंभू, अजन्मा, एक मात्र ईश्वर , अनादी भक्ति, ब्रह्म घोर निरंजन आत्मा हूँ|
मैं ही प्रवृति उर निवृति का मूलाधार , सर्वलीन पूर्ण ब्रह्म हूँ | ब्रह्मा जी ऐसा कहने पर मुनि मंडली में विद्यमान विष्णु जी ने उन्हें समझाते हुए कहा की मेरी आज्ञा से तो तुम सृष्टी के रचियता बने हो, मेरा अनादर करके तुम अपने प्रभुत्व की बात कैसे कर सकते हो ?
इस प्रकार ब्रह्मा और विष्णु अपना-अपना प्रभुत्व स्थापित करने लगे और अपने पक्ष के समर्थन में शास्त्र वाक्य उद्घृत करने लगे| अंततः वेदों से पूछने का निर्णय हुआ तो स्वरुप धारण करके आये चारों वेदों ने क्रमशः अपना मत इस प्रकार प्रकट किया –
ऋग्वेद- जिसके भीतर समस्त भूत निहित हैं तथा जिससे सब कुछ प्रवत्त होता है और जिसे परमात्व कहा जाता है, वह एक रूद्र रूप ही है |
यजुर्वेद- जिसके द्वारा हम वेद भी प्रमाणित होते हैं तथा जो ईश्वर के संपूर्ण यज्ञों तथा योगों से भजन किया जाता है, सबका दृष्टा वह एक शिवजी ही हैं|
सामवेद- जो समस्त संसारी जनों को भरमाता है, जिसे योगी जन ढूँढ़ते हैं और जिसकी भांति से सारा संसार प्रकाशित होता है, वे एक त्र्यम्बक शिवजी ही हैं |
अथर्ववेद- जिसकी भक्ति से साक्षात्कार होता है और जो सब या सुख – दुःख अतीत अनादी ब्रम्ह हैं, वे केवल एक शंकर जी ही हैं|
विष्णु ने वेदों के इस कथन को प्रताप बताते हुए नित्य शिवजी के रमण करने वाले, दिगंबर पीतवर्ण धूलि धूसरित प्रेम नाथ, कुवेटा धारी, सर्वा वेष्टित, वृपन वाही, निःसंग,शिवजी को पर ब्रम्ह मानने से इनकार कर दिया| ब्रम्हा-विष्णु विवाद को सुनकर ओंकार ने शिवजी की ज्योति, नित्य और सनातन परब्रह्म बताया परन्तु फिर भी शिव माया से मोहित ब्रह्मा विष्णु की बुद्धि परिवर्तित नहीं हुई !
उस समय उन दोनों के मध्य आदि अंत रहित एक ऐसी विशाल ज्योति प्रकट हुई की उसमे ब्रह्मा जी का पांचवा सर जलने लगा ! उसी समय त्रिशूलधारी शिव वहा प्रकट हुए तो अज्ञानता के कारण ब्रह्मा जी उनको अपना पुत्र समझकर अपनी शरण में आने को कहा !
ब्रह्मा जी की सम्पूर्ण बाते सुनकर शिवजी अत्यंत क्रोधित हुए और उन्होंने तत्काल भैरव जी को प्रकट कर उनसे ब्रह्मा जी पर शासन करने का आदेश दे दिया ! भैरव जी ने आज्ञा का पालन करते हुए अपनी बायीं ऊँगली के नख से ब्रह्मा जी के पांचवे सर को काट डाला ! ब्रह्मा जी भयभीत होकर शत रुद्री का पाठ करते हुए शिवजी की शरण में आ गए ! ब्रह्मा जी और विष्णु जी दोनों को सत्य क्या है ये पता चल गया और वे दोनों शिवजी की महिमा का गान करने लगे ! ये देखकर शिवजी का क्रोध शांत हुआ और दोनों को शिवजी ने अभयदान दिया !
इसके पश्चात शिवजी ने काल भैरव (भीषण होने के कारण और काल को भी भयभीत करने के कारण) को तथा भक्तो के पापो को तत्काल नष्ट करने वाला होने के कारण पाप भक्षक नाम देकर उनको काशीपुरी का अधिपति बना दिया ! उसके उपरांत काल भैरव को शिवजी ने कहा की तुम इन ब्रह्माजी और विष्णुजी को मानते हुए ब्रह्माजी के कपाल को धारण करके इसी के आश्रय से भिक्षा व्रती करते हुए वाराणसी चले जाओ ! वाराणसी के प्रभाव से तुम ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त हो जाओगे !
शिवजी की आज्ञा से भैरव जी हाथ में कपाल लेकर जैसे ही काशी की और चले, ब्रह्म हत्या उनकी पीछे पीछे चल पड़ी ! विष्णुजी ने उनकी स्तुति करते हुए उनसे अपने को उनकी माया से मोहित न होने का वरदान माँगा ! विष्णुजी ने ब्रह्म हत्या के भैरव जी के पीछा करने की माया पूछा तो ब्रह्म हत्या ने बताया की वो अपने आप को पवित्र और मुक्त होने के लिए भैरव जी का अनुसरण कर रही है !
जैसे ही भैरव जी काशी पहुंचे वैसे ही उनकी हाथो से चिमटा और कपाल छूट कर पृथ्वी पर गिर गए और तबसे उस स्थान का नाम कपालमोचन तीर्थ पड़ गया ! इस तीर्थ में जाकर विधि अनुसार पिंड दान और देव पितृ तर्पण करने से मनुष्य को ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्ति मिल जाती है !